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“कीमत इंसान की”

“कीमत इंसान की”

युग ऐसा है आज का, बिक जाया करते इंसान भी ।
ज़रा मोल भाव तो करो, साहब, सस्ता है इंसान भी ।।

जिंदगी ऐसी हो गयी है कि, मिलता नही सम्मान भी ।
पूजित है तो पैसे वाले, वरना, तुच्छ हो गया इंसान भी ।।

उड़ते है देखी धज्जिया, देखी बोली लगते ईमान की ।
तय करती है कीमत सारी, सिर्फ, मजबूरी इंसान की ।।

मजबूरी हो कम जितनी, कीमत होती है उतनी ज्यादा ।
गर मजबूरी ही बढ़ने लगे तो, मूल्य भी है घटता जाता ।।

ठुकरा दिए जाते है लोग अक्सर, देखकर ही उनका लिबास ।
पहचान अपनी बढाओ तो सही, रख दिए जाओगे कोहिनूर के पास ।।

खरीद फरोख्त का है जो माध्यम, वो बिचौलिया भी इंसान ही ।
नियम कानून और शर्ते जो भी, लगाने वाला इंसान ही ।।

हर व्यक्ति द्वारा अपने निचले तबके को, पग पग पर दबाया जाता है ।
भगवान! ये कैसी विडंबना है इंसानियत की, इंसान ही इंसान का फायदा उठाता है ।।

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